कन्फ्यूशियस के विद्वान शिष्य चांग-हो विश्व भ्रमण पर थे। जब वे ताईवान पहुंचे तो वहां गांव में उन्होंने एक विशाल हरे-भरे बगीचे में किसान को कुएं से पानी खींचकर पौधों को सींचते देखा। कड़ी मेहनत के कारण उसके माथे से पसीना टपक रहा था। लेकिन वह प्रसन्नतापूर्वक अपना काम कर रहा था। चांग-हो को उस पर दया आ गई।
उन्होंने लकड़ी की घिरी लगाकर कुएं से पानी निकालने का एक यंत्र बनाकर उसे दिया। पानी पेड़ों तक पहुंचाने के लिए मोटे बांसों को काटकर उनकी नालियां बना दीं और किसान को बेहतर जीवन जीने का संदेश देकर आगे निकल गए। कुछ सालों बाद जब वे दोबारा वहां पहुंचे तो उन्हें उस किसान से मिलने की इच्छा हुई। वे वहां पहुंचे तो देखा कि बगीचा सूखा था और किसान कमजोर हालत में एक खटिया पर पड़ा था।
चांग-हो ने अचरज से किसान से कहा - भाई मैंने तो तुम्हारे लिए समय और मेहनत की बचत करने वाला यंत्र बनाकर दिया था, पर तुम्हारी क्या हालत हो गई है? क्या तुम्हें बराबर आराम नहीं मिला? किसान की पत्नी बोली - महाशय, जबसे आपने यह यंत्र बनाकर दिया है, तभी से इनकी ऐसी हालत हुई है, क्योंकि यंत्र लग जाने से मेहनत करना इन्होंने बिल्कुल छोड़ दिया और आलस्य से घिर गए। बैठे-बैठे बेकार की बातों में डूबे रहते हैं और बीमार रहते हैं। यह सुनकर चांग-हो को अपनी गलती का अहसास हुआ।
सार यह है कि तंदुरुस्ती और प्रसन्नता के लिए शारीरिक श्रम आवश्यक है और श्रम से मिलने वाले आनंद का कोई विकल्प नहीं है।
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