Wednesday, November 24, 2010

और किसान रोते हुए गांधीजी के चरणों में गिर पड़ा

महात्मा गांधी को एक दिन किसी कार्यवश चंपारन से बेतिया जाना था। उनके किसी सहयोगी ने ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में उनका आरक्षण कराना चाहा, किंतु गांधीजी ने इंकार कर दिया। वे बिल्कुल आम व्यक्ति की तरह तीसरी श्रेणी में ही सफर करते थे। रात का समय था। ट्रेन प्राय: खाली ही थी।

गांधीजी चढ़े और एक सीट पर सो गए। उनके अन्य साथी भी दूसरी सीटों पर बैठ गए। आधी रात को किसी स्टेशन से एक किसान उस डिब्बे में चढ़ा। डिब्बे में घुसते ही उसने चारों ओर देखा। महात्मा गांधी को सोया देख वह उनकी ओर बढ़ा और उन्हें धक्का देकर उठाया- उठो, बैठो। तुम तो ऐसे पसरे पड़े हो जैसे गाड़ी तुम्हारे बाप की है।

महात्मा गांधी उठकर बैठ गए। उनके पास ही बैठकर वह किसान गाने लगा- धन्य, धन्य गांधीजी महाराज दुखी का दुख मिटाने वाले। वास्तव में किसान गांधीजी के दर्शन करने ही बेतिया जा रहा था। उसे नहीं पता था कि उसने जिन्हें धक्का दिया है, वे ही गांधीजी हैं। गांधीजी ने मुस्कराते हुए उसका गीत सुना। बेतिया स्टेशन पर हजारों व्यक्ति गांधीजी के स्वागत के लिए खड़े थे।

स्टेशन पर गांधीजी ट्रेन से बाहर निकले तो जय-जयकार से आकाश गूंज उठा। किसान को अपनी भूल का अहसास हुआ। वह गांधीजी के पैरों में गिर पड़ा। गांधीजी ने उसे हृदय से लगाकर क्षमा कर दिया। यहां गांधीजी ने सहनशीलता का महान संदेश दिया है। कई बार अपमानजनक अवसरों पर धर्य से काम लेने पर अपमान करने वाला आत्मसुधार की दिशा में प्रवृत्त होता है।

आज्ञा नहीं मानने पर भी श्रेष्ठ शिष्य साबित हुए रामानुज

गुरुदेव ने रामानुजाचार्य को अष्टाक्षर नारायण मंत्र का उपदेश देकर समझाया- वत्स! यह परम पावन मंत्र जिसके कानों में पड़ जाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है। मरने पर वह भगवान नारायण के दिव्य वैकुंठधाम में जाता है।

जन्म-मृत्यु के बंधन में वह फिर नहीं पड़ता। यह अत्यंत गुप्त मंत्र है, इसे किसी अयोग्य को मत सुनाना। श्रीरामानुजाचार्य ने उस समय तो गुरु की बात मान ली, किंतु उनके मन में उसी समय से द्वंद्व शुरू हो गया, जब इस मंत्र को एक बार सुनने से ही घोर पापी भी पापमुक्त होकर भगवद्धाम का अधिकारी हो जाता है, तब संसार के ये प्राणी क्यों मृत्युपाश में पड़े रहें।

क्यों न इन्हें यह परम पावन मंत्र सुनाया जाए लेकिन गुरु आज्ञा का उल्लंघन महापाप है। क्या करूं, जो दोनों ओर का निर्वाह हो जाए। हृदय में ऐसा संघर्ष चलने पर नींद भी नहीं आती। रात्रि में सभी के सो जाने पर भी रामानुज जाग रहे थे। वे धीरे से उठे और कुटिया के छप्पर पर चढ़कर पूरी शक्ति से चिल्लाने लगे - नमो नारायण, सभी लोग जाग गए। गुरुदेव ने उनसे पूछा- यह क्या कर रहा है।

रामानुज बोले, गुरुदेव आपकी आज्ञा भंग करने का महापाप करके मैं नर्क में जाऊंगा, इसका मुझे कोई दुख नहीं है किंतु खुशी है कि ये सभी प्राणी यह मंत्र सुनकर भगवद्धाम पहुंच जाएंगे। गुरुदेव ने उन्हें क्षमाकर गले लगाते हुए कहा- तू मेरा सच्च शिष्य है।

वस्तुत: प्राणियों के उद्धार की जिसे इतनी चिंता हो, वही भगवान का सच्च भक्त और स्वर्ग का अधिकारी है। जिसके हृदय में सर्वकल्याण का भाव हो, उसके द्वारा लोकहित में किया नियम विरुद्ध कार्य भी आदरणीय होता है।

जब काशी नरेश ने अपनी महारानी को दंडित किया

काशी की महारानी अपनी दासियों के साथ माघ का स्नान करने नदी पर गईं। नदी के पास बनी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को राजसेवकों ने पहले ही हटा दिया था। माघ का महीना होने से स्नान के बाद रानी को ठंड लगने लगी। उन्होंने एक दासी से कहा- यहां सूखी लकड़ियां नहीं हैं।

इन झोपड़ियों में से एक में आग लगा दे। मुझे सर्दी लग रही है, हाथ-पैर सेंकने हैं। दासी बोली- महारानी, इन झोपड़ियों में या तो साधु रहते हैं या गरीब। इस शीतकाल में झोपड़ी जल जाने पर वे बेचारे कहां जाएंगे, किंतु महारानी को अपने सुख के आगे गरीबों के कष्ट की क्या परवाह।

उन्होंने दूसरी दासी को कहकर एक झोपड़ी में आग लगवा दी किंतु हवा के वेग से आग फैल गई और सभी झोपड़ियां जल गईं। महारानी ने उसकी कोई चिंता न करते हुए आराम से हाथ-पैर सेंके। अगले दिन वे गरीब लोग राजा के पास पहुंचे, जिनकी झोपड़ियां आग में स्वाहा हो गई थीं। राजा को जब पता चला तो उन्हें बड़ा दुख हुआ।

उन्होंने रानी से इस अन्याय का कारण पूछा तो वे घमंड से बोली- आप उन घास के गंदे झोपड़ों को घर बता रहे हैं। वे तो फूंक देने के ही योग्य थे। तब महाराज ने कहा- उन गरीबों के लिए वे झोपड़े कितने मूल्यवान हैं, यह तुम अब समझोगी। राजा ने कहा- आपको राजभवन से निष्कासित किया जा रहा है।

आप भिक्षा मांगकर जब जली हुईं झोपड़ियां पुन: बनवा देंगी, तब राजभवन में आ सकेंगी। वस्तुत: अत्याचारी को जब वही अत्याचार सहने का दंड दिया जाता है, तभी वह दर्द को जान पाता है और बुरा न करने हेतु कृतसंकल्पित होता है।

मानवता कूट-कूटकर भरी थी वंद्योपाध्यायजी में

कोलकाता के एक शहर में कई बरस पहले एक सज्जन रहते थे। उनका नाम था स्व. शशिभूषण वंद्योपाध्याय। वे पेशे से सरकारी वकील थे। उनके हृदय में समाज के दीन-हीन व्यक्तियों के प्रति बड़ा दयाभाव था। वे स्वयं काफी संपन्न थे किंतु इसका लेशमात्र भी अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाया। वे अपनी सहजता में सभी से स्नेहपूर्वक व्यवहार रखते थे।

एक दिन दोपहर के समय उन्हें किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर किसी आवश्यक कार्य से जाना था। गर्मी का मौसम था। बाहर लू बरस रही थी। फिर भी वंद्योपाध्यायजी एक किराए की गाड़ी में बैठकर उन सज्जन के घर पहुंचे। उन्होंने वंद्योपाध्यायजी का समुचित सत्कार कर पूछा - इस भीषण तपती दोपहरी में आपने आने का कष्ट क्यों किया।

आप अपने किसी नौकर के हाथ यह पत्र भेज देते तो भी यह काम हो जाता। तब वंद्योपाध्यायजी बोले- मैंने पहले नौकर को ही भेजने का विचार किया था और पत्र भी लिख लिया था किंतु बाहर की प्रचंड गर्मी और लू देखकर मैं किसी भी नौकर को भेजने का साहस नहीं कर सका। मैं तो गाड़ी से आया हूं किंतु उस बेचारे को तो पैदल आना पड़ता। उसमें भी तो वही आत्मा है जो मुझमें हैं।

सार यह है कि पर दुख को तारना मानवीयता का सच्च लक्षण है, जो एक मनुष्य को मनुष्यता की कसौटी पर खरा उतारता है। यदि हम दूसरों के दुख-दर्द को पूरी संवेदना के साथ महसूस कर उनके प्रति दयाभाव रखते हैं तो यही सच्ची मानवता है।

तिलक ने दिया स्थितप्रज्ञता का अनूठा परिचय

तेईस जुलाई वर्ष 1916 को लोकमान्य तिलक की ६क्वीं वर्षगांठ थी। दो वर्ष पूर्व ही वे मांडले में 6 वर्ष की सजा पूर्ण कर छूटे थे। उनका जन्मोत्सव उनके सभी स्नेहीजनों ने धूमधाम से मनाने का निश्चय किया। यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया कि पूना में तिलक का सार्वजनिक अभिनंदन किया जाएगा और सम्मानस्वरूप उन्हें एक लाख रुपए की थली भेंट की जाएगी। अंतत: वह शुभ दिन आ ही गया। देश के कोने-कोने से कई राष्ट्रीय नेता और तिलक भक्त उनके अभिनंदन के लिए पूना पधारे। पूना के गायकवाड़े में आयोजन किया गया।

सब तरफ हंसी-खुशी का वातावरण था। भाषण चर्चा और बातचीत के बीच हास्य-विनोद की लहर भी चल रही थी। स्वयं तिलक पूर्ण उत्साह से कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे। इसी बीच जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट आए और तिलक को एक नोटिस दिया।

नोटिस में लिखा था- आपके अहमदनगर और वेलगांव में दिए गए भाषण राजद्रोहात्मक हैं, इसलिए क्यों न एक वर्ष तक नेक चलनी का बीस हजार मुचलका और दस-दस हजार की दो जमानतें आपसे ली जाएं। तिलक ने शांतिपूर्वक इसे पढ़कर ले लिया और फिर सभा में आकर उसी तरह समरस हो गए। उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। उपस्थित जनसमुदाय को उन्होंने इस घटना का भान तक न होने दिया।

यह प्रसंग स्थितप्रज्ञता का उदाहरण है। सुख-दुख में निरपेक्ष भाव से रहते हुए अपनी सहजता को कायम रखना स्थितप्रज्ञता है जो विशेष रूप से विपत्ति के क्षणों में काम आती है। स्थितप्रज्ञता से विचलन नहीं होता, जो अशांति का जनक होता है।

एक अपरिचित ने जब संत इब्राहीम को दिया ज्ञान

संत इब्राहीम खवास किसी पर्वत पर जा रहे थे। पर्वत पर अनार के वृक्ष थे और उनमें फल लगे थे। अनार वास्तव में बड़े रस भरे थे और दिखने में भी अत्यंत सुंदर दिखाई दे रहे थे। इब्राहीम को उन्हें देखकर खाने की इच्छा हुई। उन्होंने एक अनार तोड़ा और उसे खाने लगे, किंतु वह खट्टा निकला।

अत: इब्राहीम ने उसे फेंक दिया और आगे बढ़ गए। कुछ आगे जाने पर उन्हें मार्ग पर एक आदमी लेटा हुआ मिला। उसे बहुत सारी मक्खियां काट रही थीं, किंतु वह उन्हें भगाता नहीं था। इब्राहीम ने उसे नमस्कार किया तो वह बोला - इब्राहीम, तुम अच्छे आए।

एक अपरिचित को अपना नाम लेते देख इब्राहीम को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, आप मुझे कैसे पहचानते हैं? वह व्यक्ति बोला- एक ईश्वर भक्त व्यक्ति से कुछ छिपा नहीं रहता। इब्राहीम ने कहा - आपको भगवद्प्राप्ति हुई है तो भगवान से प्रार्थना क्यों नहीं करते कि इन मक्खियों को आपसे दूर कर दें?

तब वह मनुष्य बोला - इब्राहीम, तुम्हें भी तो भगवद्प्राप्ति हुई है। तुम क्यों प्रार्थना नहीं करते कि तुम्हारे मन में अनार खाने की कामना न हो। मक्खियां तो शरीर को ही कष्ट देती है, किंतु कामनाएं तो हृदय को पीड़ित करती हैं। यह सुनकर इब्राहीम की आंखें खुल गईं।

वस्तुत: कामनाओं का कोई अंत नहीं होता और वे सदा व्यक्ति को असंतुष्ट बनाए रखती हैं, जिससे उसे मानसिक शांति नहीं मिलती। अत: आत्म संयम का मार्ग अपनाकर उपलब्ध वस्तुओं में ही संतुष्ट रहना चाहिए।

क्रेसिन अपनी बुद्धिमानी व श्रम से जीता मुकदमा

इटली में क्रेसिन नाम का किसान रहता था। वह बुद्धिमान और परिश्रमी था। अपनी खेती में उन्नति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता था। एक बार उसने अपनी मेहनत के दम पर इतनी अच्छी पैदावार की कि लोग आश्चर्य के साथ ईष्र्या करने लगे। लोगों ने सोचा कि अवश्य ही क्रेसिन कोई जादू जानता है। उन्होंने इस बात को लेकर अदालत में अपील की।

न्यायाधीश ने पहले वादी का बयान सुना, जिसमें उसके द्वारा जादू करने तथा इसे नियम विरुद्ध बताकर उसे दंडित करने का आग्रह किया। न्यायाधीश ने क्रेसिन की ओर उन्मुख होकर पूछा - इस पर तुम्हारा क्या कहना है?

क्रेसिन ने अपनी एक हृष्ट-पुष्ट लड़की, अपने खेती के औजार, बैल आदि को अदालत के सामने खड़ा कर कहा- मैं खेत को भली-भांति जोतकर, खाद डालकर अच्छा तैयार करता हूं। मेरी लड़की बीज बोती है और पानी आदि देकर खेत की ठीक से देखरेख करती है।

इसी तरह मेरे औजार भी उत्तम हंै और मेरे बेल भी एकदम स्वस्थ व सबल हैं, क्योंकि मैं इन्हें खूब खिलाता-पिलाता हूं। मेरे खेत में काफी पैदावार होने पर ये लोग जिस जादू की बात करते हैं वह जादू इन सब में है, जो आपके सामने मैंने प्रस्तुत किए।

न्यायाधीश बोले- आज तक कई अपराधी मेरे सामने आए, किंतु इतने सबल प्रमाण किसी ने भी प्रस्तुत नहीं किए। मैं इन्हें मुक्त करता हूं। यह कहकर न्यायाधीश ने क्रेसिन को मुक्त कर दिया। वस्तुत: किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता कठोर परिश्रम से ही प्राप्त होती है। साथ ही साधनों का उत्कृष्टतम उपयोग सफलता की गारंटी है।