कोलकाता के एक शहर में कई बरस पहले एक सज्जन रहते थे। उनका नाम था स्व. शशिभूषण वंद्योपाध्याय। वे पेशे से सरकारी वकील थे। उनके हृदय में समाज के दीन-हीन व्यक्तियों के प्रति बड़ा दयाभाव था। वे स्वयं काफी संपन्न थे किंतु इसका लेशमात्र भी अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाया। वे अपनी सहजता में सभी से स्नेहपूर्वक व्यवहार रखते थे।
एक दिन दोपहर के समय उन्हें किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर किसी आवश्यक कार्य से जाना था। गर्मी का मौसम था। बाहर लू बरस रही थी। फिर भी वंद्योपाध्यायजी एक किराए की गाड़ी में बैठकर उन सज्जन के घर पहुंचे। उन्होंने वंद्योपाध्यायजी का समुचित सत्कार कर पूछा - इस भीषण तपती दोपहरी में आपने आने का कष्ट क्यों किया।
आप अपने किसी नौकर के हाथ यह पत्र भेज देते तो भी यह काम हो जाता। तब वंद्योपाध्यायजी बोले- मैंने पहले नौकर को ही भेजने का विचार किया था और पत्र भी लिख लिया था किंतु बाहर की प्रचंड गर्मी और लू देखकर मैं किसी भी नौकर को भेजने का साहस नहीं कर सका। मैं तो गाड़ी से आया हूं किंतु उस बेचारे को तो पैदल आना पड़ता। उसमें भी तो वही आत्मा है जो मुझमें हैं।
सार यह है कि पर दुख को तारना मानवीयता का सच्च लक्षण है, जो एक मनुष्य को मनुष्यता की कसौटी पर खरा उतारता है। यदि हम दूसरों के दुख-दर्द को पूरी संवेदना के साथ महसूस कर उनके प्रति दयाभाव रखते हैं तो यही सच्ची मानवता है।
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