Wednesday, November 24, 2010

और किसान रोते हुए गांधीजी के चरणों में गिर पड़ा

महात्मा गांधी को एक दिन किसी कार्यवश चंपारन से बेतिया जाना था। उनके किसी सहयोगी ने ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में उनका आरक्षण कराना चाहा, किंतु गांधीजी ने इंकार कर दिया। वे बिल्कुल आम व्यक्ति की तरह तीसरी श्रेणी में ही सफर करते थे। रात का समय था। ट्रेन प्राय: खाली ही थी।

गांधीजी चढ़े और एक सीट पर सो गए। उनके अन्य साथी भी दूसरी सीटों पर बैठ गए। आधी रात को किसी स्टेशन से एक किसान उस डिब्बे में चढ़ा। डिब्बे में घुसते ही उसने चारों ओर देखा। महात्मा गांधी को सोया देख वह उनकी ओर बढ़ा और उन्हें धक्का देकर उठाया- उठो, बैठो। तुम तो ऐसे पसरे पड़े हो जैसे गाड़ी तुम्हारे बाप की है।

महात्मा गांधी उठकर बैठ गए। उनके पास ही बैठकर वह किसान गाने लगा- धन्य, धन्य गांधीजी महाराज दुखी का दुख मिटाने वाले। वास्तव में किसान गांधीजी के दर्शन करने ही बेतिया जा रहा था। उसे नहीं पता था कि उसने जिन्हें धक्का दिया है, वे ही गांधीजी हैं। गांधीजी ने मुस्कराते हुए उसका गीत सुना। बेतिया स्टेशन पर हजारों व्यक्ति गांधीजी के स्वागत के लिए खड़े थे।

स्टेशन पर गांधीजी ट्रेन से बाहर निकले तो जय-जयकार से आकाश गूंज उठा। किसान को अपनी भूल का अहसास हुआ। वह गांधीजी के पैरों में गिर पड़ा। गांधीजी ने उसे हृदय से लगाकर क्षमा कर दिया। यहां गांधीजी ने सहनशीलता का महान संदेश दिया है। कई बार अपमानजनक अवसरों पर धर्य से काम लेने पर अपमान करने वाला आत्मसुधार की दिशा में प्रवृत्त होता है।

आज्ञा नहीं मानने पर भी श्रेष्ठ शिष्य साबित हुए रामानुज

गुरुदेव ने रामानुजाचार्य को अष्टाक्षर नारायण मंत्र का उपदेश देकर समझाया- वत्स! यह परम पावन मंत्र जिसके कानों में पड़ जाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है। मरने पर वह भगवान नारायण के दिव्य वैकुंठधाम में जाता है।

जन्म-मृत्यु के बंधन में वह फिर नहीं पड़ता। यह अत्यंत गुप्त मंत्र है, इसे किसी अयोग्य को मत सुनाना। श्रीरामानुजाचार्य ने उस समय तो गुरु की बात मान ली, किंतु उनके मन में उसी समय से द्वंद्व शुरू हो गया, जब इस मंत्र को एक बार सुनने से ही घोर पापी भी पापमुक्त होकर भगवद्धाम का अधिकारी हो जाता है, तब संसार के ये प्राणी क्यों मृत्युपाश में पड़े रहें।

क्यों न इन्हें यह परम पावन मंत्र सुनाया जाए लेकिन गुरु आज्ञा का उल्लंघन महापाप है। क्या करूं, जो दोनों ओर का निर्वाह हो जाए। हृदय में ऐसा संघर्ष चलने पर नींद भी नहीं आती। रात्रि में सभी के सो जाने पर भी रामानुज जाग रहे थे। वे धीरे से उठे और कुटिया के छप्पर पर चढ़कर पूरी शक्ति से चिल्लाने लगे - नमो नारायण, सभी लोग जाग गए। गुरुदेव ने उनसे पूछा- यह क्या कर रहा है।

रामानुज बोले, गुरुदेव आपकी आज्ञा भंग करने का महापाप करके मैं नर्क में जाऊंगा, इसका मुझे कोई दुख नहीं है किंतु खुशी है कि ये सभी प्राणी यह मंत्र सुनकर भगवद्धाम पहुंच जाएंगे। गुरुदेव ने उन्हें क्षमाकर गले लगाते हुए कहा- तू मेरा सच्च शिष्य है।

वस्तुत: प्राणियों के उद्धार की जिसे इतनी चिंता हो, वही भगवान का सच्च भक्त और स्वर्ग का अधिकारी है। जिसके हृदय में सर्वकल्याण का भाव हो, उसके द्वारा लोकहित में किया नियम विरुद्ध कार्य भी आदरणीय होता है।

जब काशी नरेश ने अपनी महारानी को दंडित किया

काशी की महारानी अपनी दासियों के साथ माघ का स्नान करने नदी पर गईं। नदी के पास बनी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को राजसेवकों ने पहले ही हटा दिया था। माघ का महीना होने से स्नान के बाद रानी को ठंड लगने लगी। उन्होंने एक दासी से कहा- यहां सूखी लकड़ियां नहीं हैं।

इन झोपड़ियों में से एक में आग लगा दे। मुझे सर्दी लग रही है, हाथ-पैर सेंकने हैं। दासी बोली- महारानी, इन झोपड़ियों में या तो साधु रहते हैं या गरीब। इस शीतकाल में झोपड़ी जल जाने पर वे बेचारे कहां जाएंगे, किंतु महारानी को अपने सुख के आगे गरीबों के कष्ट की क्या परवाह।

उन्होंने दूसरी दासी को कहकर एक झोपड़ी में आग लगवा दी किंतु हवा के वेग से आग फैल गई और सभी झोपड़ियां जल गईं। महारानी ने उसकी कोई चिंता न करते हुए आराम से हाथ-पैर सेंके। अगले दिन वे गरीब लोग राजा के पास पहुंचे, जिनकी झोपड़ियां आग में स्वाहा हो गई थीं। राजा को जब पता चला तो उन्हें बड़ा दुख हुआ।

उन्होंने रानी से इस अन्याय का कारण पूछा तो वे घमंड से बोली- आप उन घास के गंदे झोपड़ों को घर बता रहे हैं। वे तो फूंक देने के ही योग्य थे। तब महाराज ने कहा- उन गरीबों के लिए वे झोपड़े कितने मूल्यवान हैं, यह तुम अब समझोगी। राजा ने कहा- आपको राजभवन से निष्कासित किया जा रहा है।

आप भिक्षा मांगकर जब जली हुईं झोपड़ियां पुन: बनवा देंगी, तब राजभवन में आ सकेंगी। वस्तुत: अत्याचारी को जब वही अत्याचार सहने का दंड दिया जाता है, तभी वह दर्द को जान पाता है और बुरा न करने हेतु कृतसंकल्पित होता है।

मानवता कूट-कूटकर भरी थी वंद्योपाध्यायजी में

कोलकाता के एक शहर में कई बरस पहले एक सज्जन रहते थे। उनका नाम था स्व. शशिभूषण वंद्योपाध्याय। वे पेशे से सरकारी वकील थे। उनके हृदय में समाज के दीन-हीन व्यक्तियों के प्रति बड़ा दयाभाव था। वे स्वयं काफी संपन्न थे किंतु इसका लेशमात्र भी अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाया। वे अपनी सहजता में सभी से स्नेहपूर्वक व्यवहार रखते थे।

एक दिन दोपहर के समय उन्हें किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर किसी आवश्यक कार्य से जाना था। गर्मी का मौसम था। बाहर लू बरस रही थी। फिर भी वंद्योपाध्यायजी एक किराए की गाड़ी में बैठकर उन सज्जन के घर पहुंचे। उन्होंने वंद्योपाध्यायजी का समुचित सत्कार कर पूछा - इस भीषण तपती दोपहरी में आपने आने का कष्ट क्यों किया।

आप अपने किसी नौकर के हाथ यह पत्र भेज देते तो भी यह काम हो जाता। तब वंद्योपाध्यायजी बोले- मैंने पहले नौकर को ही भेजने का विचार किया था और पत्र भी लिख लिया था किंतु बाहर की प्रचंड गर्मी और लू देखकर मैं किसी भी नौकर को भेजने का साहस नहीं कर सका। मैं तो गाड़ी से आया हूं किंतु उस बेचारे को तो पैदल आना पड़ता। उसमें भी तो वही आत्मा है जो मुझमें हैं।

सार यह है कि पर दुख को तारना मानवीयता का सच्च लक्षण है, जो एक मनुष्य को मनुष्यता की कसौटी पर खरा उतारता है। यदि हम दूसरों के दुख-दर्द को पूरी संवेदना के साथ महसूस कर उनके प्रति दयाभाव रखते हैं तो यही सच्ची मानवता है।

तिलक ने दिया स्थितप्रज्ञता का अनूठा परिचय

तेईस जुलाई वर्ष 1916 को लोकमान्य तिलक की ६क्वीं वर्षगांठ थी। दो वर्ष पूर्व ही वे मांडले में 6 वर्ष की सजा पूर्ण कर छूटे थे। उनका जन्मोत्सव उनके सभी स्नेहीजनों ने धूमधाम से मनाने का निश्चय किया। यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया कि पूना में तिलक का सार्वजनिक अभिनंदन किया जाएगा और सम्मानस्वरूप उन्हें एक लाख रुपए की थली भेंट की जाएगी। अंतत: वह शुभ दिन आ ही गया। देश के कोने-कोने से कई राष्ट्रीय नेता और तिलक भक्त उनके अभिनंदन के लिए पूना पधारे। पूना के गायकवाड़े में आयोजन किया गया।

सब तरफ हंसी-खुशी का वातावरण था। भाषण चर्चा और बातचीत के बीच हास्य-विनोद की लहर भी चल रही थी। स्वयं तिलक पूर्ण उत्साह से कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे। इसी बीच जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट आए और तिलक को एक नोटिस दिया।

नोटिस में लिखा था- आपके अहमदनगर और वेलगांव में दिए गए भाषण राजद्रोहात्मक हैं, इसलिए क्यों न एक वर्ष तक नेक चलनी का बीस हजार मुचलका और दस-दस हजार की दो जमानतें आपसे ली जाएं। तिलक ने शांतिपूर्वक इसे पढ़कर ले लिया और फिर सभा में आकर उसी तरह समरस हो गए। उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। उपस्थित जनसमुदाय को उन्होंने इस घटना का भान तक न होने दिया।

यह प्रसंग स्थितप्रज्ञता का उदाहरण है। सुख-दुख में निरपेक्ष भाव से रहते हुए अपनी सहजता को कायम रखना स्थितप्रज्ञता है जो विशेष रूप से विपत्ति के क्षणों में काम आती है। स्थितप्रज्ञता से विचलन नहीं होता, जो अशांति का जनक होता है।

एक अपरिचित ने जब संत इब्राहीम को दिया ज्ञान

संत इब्राहीम खवास किसी पर्वत पर जा रहे थे। पर्वत पर अनार के वृक्ष थे और उनमें फल लगे थे। अनार वास्तव में बड़े रस भरे थे और दिखने में भी अत्यंत सुंदर दिखाई दे रहे थे। इब्राहीम को उन्हें देखकर खाने की इच्छा हुई। उन्होंने एक अनार तोड़ा और उसे खाने लगे, किंतु वह खट्टा निकला।

अत: इब्राहीम ने उसे फेंक दिया और आगे बढ़ गए। कुछ आगे जाने पर उन्हें मार्ग पर एक आदमी लेटा हुआ मिला। उसे बहुत सारी मक्खियां काट रही थीं, किंतु वह उन्हें भगाता नहीं था। इब्राहीम ने उसे नमस्कार किया तो वह बोला - इब्राहीम, तुम अच्छे आए।

एक अपरिचित को अपना नाम लेते देख इब्राहीम को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, आप मुझे कैसे पहचानते हैं? वह व्यक्ति बोला- एक ईश्वर भक्त व्यक्ति से कुछ छिपा नहीं रहता। इब्राहीम ने कहा - आपको भगवद्प्राप्ति हुई है तो भगवान से प्रार्थना क्यों नहीं करते कि इन मक्खियों को आपसे दूर कर दें?

तब वह मनुष्य बोला - इब्राहीम, तुम्हें भी तो भगवद्प्राप्ति हुई है। तुम क्यों प्रार्थना नहीं करते कि तुम्हारे मन में अनार खाने की कामना न हो। मक्खियां तो शरीर को ही कष्ट देती है, किंतु कामनाएं तो हृदय को पीड़ित करती हैं। यह सुनकर इब्राहीम की आंखें खुल गईं।

वस्तुत: कामनाओं का कोई अंत नहीं होता और वे सदा व्यक्ति को असंतुष्ट बनाए रखती हैं, जिससे उसे मानसिक शांति नहीं मिलती। अत: आत्म संयम का मार्ग अपनाकर उपलब्ध वस्तुओं में ही संतुष्ट रहना चाहिए।

क्रेसिन अपनी बुद्धिमानी व श्रम से जीता मुकदमा

इटली में क्रेसिन नाम का किसान रहता था। वह बुद्धिमान और परिश्रमी था। अपनी खेती में उन्नति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता था। एक बार उसने अपनी मेहनत के दम पर इतनी अच्छी पैदावार की कि लोग आश्चर्य के साथ ईष्र्या करने लगे। लोगों ने सोचा कि अवश्य ही क्रेसिन कोई जादू जानता है। उन्होंने इस बात को लेकर अदालत में अपील की।

न्यायाधीश ने पहले वादी का बयान सुना, जिसमें उसके द्वारा जादू करने तथा इसे नियम विरुद्ध बताकर उसे दंडित करने का आग्रह किया। न्यायाधीश ने क्रेसिन की ओर उन्मुख होकर पूछा - इस पर तुम्हारा क्या कहना है?

क्रेसिन ने अपनी एक हृष्ट-पुष्ट लड़की, अपने खेती के औजार, बैल आदि को अदालत के सामने खड़ा कर कहा- मैं खेत को भली-भांति जोतकर, खाद डालकर अच्छा तैयार करता हूं। मेरी लड़की बीज बोती है और पानी आदि देकर खेत की ठीक से देखरेख करती है।

इसी तरह मेरे औजार भी उत्तम हंै और मेरे बेल भी एकदम स्वस्थ व सबल हैं, क्योंकि मैं इन्हें खूब खिलाता-पिलाता हूं। मेरे खेत में काफी पैदावार होने पर ये लोग जिस जादू की बात करते हैं वह जादू इन सब में है, जो आपके सामने मैंने प्रस्तुत किए।

न्यायाधीश बोले- आज तक कई अपराधी मेरे सामने आए, किंतु इतने सबल प्रमाण किसी ने भी प्रस्तुत नहीं किए। मैं इन्हें मुक्त करता हूं। यह कहकर न्यायाधीश ने क्रेसिन को मुक्त कर दिया। वस्तुत: किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता कठोर परिश्रम से ही प्राप्त होती है। साथ ही साधनों का उत्कृष्टतम उपयोग सफलता की गारंटी है।

मेहनत से हासिल की लिंकन ने अपनी पसंदीदा पुस्तक

अब्राहम लिंकन का बचपन अभावों में बीता। कभी नाव चलाकर, तो कभी लकड़ी काटकर वे जीविका चलाते थे। उन्हें महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने में बड़ा आनंद आता था। किंतु पुस्तक खरीदकर पढ़ना उनके लिए कठिन था। वे अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन के जीवन से बहुत प्रभावित थे।

एक बार उन्हें पता चला कि एक पड़ोसी के पास जॉर्ज वॉशिंगटन की जीवनी है। उन्हें हिचक हुई, किंतु पड़ोसी ने उनकी रुचि देखते हुए पुस्तक दे दी। लिंकन ने उसे जल्दी ही लौटाने का वादा किया। लिंकन ने पुस्तक पूरी पढ़ी भी नहीं थी कि एक दिन जोरों की बारिश हुई। चूंकि लिंकन झोपड़ी में रहते थे, इसलिए पुस्तक भीग गई।

लिंकन बड़े दुखी मन से पड़ोसी के पास जाकर बोले - मुझसे आपकी पुस्तक खराब हो जाने का बड़ा भारी अपराध हो गया है, किंतु मैं आपको खराब पुस्तक नहीं लौटाते हुए नई लाकर दूंगा। पड़ोसी ने उसकी गरीबी को देखते हुए प्रश्न किया। नई किस तरह से दोगे? लिंकन बोले- मुझे अपनी मेहनत पर विश्वास है।

मैं आपके खेत में मजदूरी कर पुस्तक के दोगुने दाम का काम कर दूंगा। पड़ोसी मान गया। लिंकन ने काम कर पुस्तक के दाम की भरपाई कर दी और वॉशिंगटन की जीवनी उन्हीं की संपत्ति हो गई। अपने श्रम से इस प्रकार लिंकन ने अपने पुस्तकालय की पहली पुस्तक प्राप्त की।

लिंकन के जीवन की यह घटना परिश्रम के द्वारा उपार्जन के महत्व को इंगित करती है। वस्तुत: स्वयं की मेहनत के बल पर प्राप्त उपलब्धि आत्मिक संतुष्टि तो देती ही है, साथ ही समाज की दृष्टि में भी प्रशंसनीय व अनुकरणीय होती है।

विद्वान सोलन की बातों से कारूं का घमंड हुआ चूर

एथेंस में सोलन नाम के एक बड़े विद्वान रहते थे। अपने ज्ञान व सादगीपूर्ण जीवन-शैली के कारण वे जनता के बीच काफी लोकप्रिय थे। सोलन को देशाटन का बेहद शौक था। वे अनेक स्थानों पर जाते और विभिन्न लोगों से चर्चा करते। एक बार सोलन अपने भ्रमण के दौरान लीडिया देश पहुंचे। वहां के राजा कारूं ने उन्हें अपने दरबार में आमंत्रित किया।

सोलन जब वहां पहुंचे, तो कारूं ने उन्हें अपनी अपार धनराशि के बारे में बताया, जिसे सुनकर सोलन मौन रहे। वास्तव में कारूं को अपनी अतुल संपत्ति का बड़ा अभिमान था। उसने धनराशि का प्रदर्शन कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कारूं से बढ़कर संसार में कोई और सुखी नहीं है। किंतु ज्ञानी सोलन पर उसके वैभव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने केवल यही कहा- संसार में सुखी केवल वही कहा जा सकता है, जिसका अंत सुखमय हो।

यह सुनकर कारूं ने बिना किसी विशेष सत्कार के सोलन को अपने यहां से विदा कर दिया। कुछ समय बाद कारूं ने पारस के राजा साइरस पर आक्रमण किया, किंतु वह हार गया और साइरस ने उसे पकड़कर जीवित जलाने की आज्ञा दी। तब कारूं को सोलन की बातें याद आ गईं। उसने तीन बार हाय सोलन, हाय सोलन कहकर पुकारा। जब साइरस ने इसका मतलब पूछा तो उसने सोलन की सारी बातें सुना दीं। इसका साइरस पर अच्छा प्रभाव पड़ा और उसने कारूं को मुक्त कर दिया।

सार यह है कि जीवन में धन से अधिक चित्त की समता व तदजनित शांति अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि धन प्रत्येक समस्या में काम नहीं आता। जबकि समत्व भाव को पा लेने पर समस्या का जन्म ही नहीं होता है।

जब अदालत ने राजपुत्र को कैद की सजा सुनाई

इंग्लैंड के राजा हेनरी चतुर्थ का बड़ा पुत्र आगे हेनरी पंचमके नाम से प्रसिद्ध हुआ। बचपन में वह अत्यंत उजड्ड और मुंहफट था। उसकी संगति भी बहुत अभद्र और दुष्ट लोगों के साथ थी। एक बार उसके एक मित्र को किसी अपराध पर मुख्य न्यायाधीश ने कैद की सजा सुनाई।

राजपुत्र अदालत में उपस्थित था। सजा सुनाते ही वह बिगड़ पड़ा और न्यायाधीश के साथ बेअदबी कर अपने मित्र को छोड़ने का हुक्म दिया। उसने कहा- मैं प्रिंस ऑफ वेल्स के नाते आपको आदेश देता हूं कि यह मेरा मित्र है, इसलिए रास्ते के साधारण चोर की तरह इसके साथ कभी बर्ताव न करें। न्यायाधीश ने उत्तर दिया- मैं यहां प्रिंस ऑफ वेल्स को बिल्कुल नहीं पहचानता।

न्याय के काम में पक्षपात नहीं करूंगा, यह मैंने शपथ ली है। इसलिए न्यायसंगत कार्य ही करूंगा। राजपुत्र ने गुस्से में आकर न्यायाधीश के गाल पर थप्पड़ मार दिया। तब न्यायाधीश ने राजपुत्र और उसके मित्र को तत्काल जेल भेजने का आदेश दिया। उन्होंने कहा- आगे आपको ही राज्यारूढ़ होना है।

यदि स्वयं आप अपने राज्य के कानून की इस तरह अवज्ञा करेंगे तो प्रजा आपका आदेश क्या मानेगी। यह बात सुनकर राजपुत्र लज्जित हुआ और न्यायाधीश को प्रणाम कर जेल की ओर चल पड़ा। राजा हेनरी को पता चला तो वे बोले- सचमुच मैं धन्य हूं, जिसके राज्य में निष्पक्ष न्याय करने वाला ऐसा न्यायाधीश है। सार यह कि न्याय की दृष्टि हमेशा सम होनी चाहिए। उसके लिए वर्ग विशेष को महत्व देना अन्याय कहलाता है। न्याय पक्षपात रहित और सत्य के पक्ष में हो।

जब मेजबान ने मेहमान से सीखे मेहमानी के गुर

किसी अरब नगर का एक नागरिक अतिथियों को अधिक परेशान करने के लिए विख्यात हो गया था। ऐसा कहा जाता था कि वह अभ्यागतों को स्वागत-सत्कार की पूछताछ और आवभगत में बहुत तंग कर देता था। यह सुनकर एक व्यक्ति ने उसकी सत्यता जाननी चाही। वह उस अरब नागरिक के घर गया।

अभिवादन के पश्चात गृहस्वामी ने उसे भीतर जाकर शैया पर विराजने की प्रार्थना की, जिसे उस व्यक्ति ने बिना विरोध किए स्वीकार कर लिया। इसके बाद गृहस्वामी ने उसे भोजन कराया और तत्पश्चात फुलवारे में टहलने का अनुरोध किया, जिसे उसने बिना विरोध किए मान लिया।

टहलते हुए अभ्यागत ने पूछा - मैने सुना है कि आप अतिथियों के सामने वह सब उपस्थित कर उन्हें परेशान करते हैं जो वे नहीं चाहते और जो चाहते हैं उसे ध्यान में भी नहीं लाते। तब गृहस्वामी बोला - जब मेरे घर कोई आता है तो मेरे द्वारा उत्तम आसन व शैया देने पर वह अस्वीकार कर देता है।

भोजन लाता हूं तो नहीं, धन्यवाद कहता है। ऐसी दशा में ठीक विरुद्ध बुद्धि के लोगों को कैसे प्रसन्न करें। प्रत्येक नागरिक को मेजबान के विचारों का ध्यान रख तदनुकूल व्यवहार करना चाहिए। तब आगंतुक ने समझाया - यही आपको समझना चाहिए।

रुचि की विभिन्नता जानकर उसके अनुरूप आचरण ही स्वागत को पूर्ण बनाता है। सार यह कि स्वागत सदैव मेहमान की रुचि व प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए, क्योंकि तभी सत्कार का मूल उद्देश्य पूर्ण हो पाएगा।

मित्र द्वारा ली गई परीक्षा में खरे उतरे इमर्सन

इमर्सन अमेरिका के महान दार्शनिक और विचारक थे। उनका संपूर्ण जीवन परमात्मा के चरणों में समर्पित था। उनका विचार था कि इस विश्व में परमात्मा से ही संबंध रखना चाहिए, क्योंकि उनके चिंतन से जीवन अमृतमय हो उठता है। संसार की वस्तुएं तो नश्वर और क्षणभंगुर हैं।

इनसे अनुरक्ति कष्ट ही पहुंचाती है। एक दिन इमर्सन एकांत में बैठकर भगवान का चिंतन कर रहे थे कि उनके एक मित्र आए। मित्र उस दिन सोचकर आए थे कि इमर्सन की परीक्षा लेंगे। उन्होंने स्वयं को किसी विशिष्ट चिंता से परेशान प्रकट किया। इमर्सन ने पूछा - क्या बात है? मित्र बोले, भाई, कुछ मत पूछो। हम लोगों के भाग्य में ऐसा बुरा दिन देखना लिखा था।

क्या आप नहीं जानते कि आज रात को ही संपूर्ण संसार काल के गाल में समा जाएगा। प्रलय उपस्थित है। यह सुनते ही इमर्सन आनंद से झूम उठे। उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा, मित्र, यह तो आपने बड़ी अच्छी बात बताई। इससे बढ़कर दूसरा समाचार हो ही क्या सकता है।

इस संसार के बिना भी मनुष्य बड़े आराम और सुख से रह सकता है। ईश्वरीय राज्य आएगा और मनुष्य अपने क्षणभंगुर जीवन में सच्ची शांति और वास्तविक सत्य का अनुभव करेगा। इमर्सन की इस सात्विक प्रसन्नता को देख मित्र को उनके संतत्व का भान हो गया। वस्तुत: सच्च संत वही होता है जो भौतिक दुनिया से सरोकार न रखते हुए केवल ईश्वर के प्रति समर्पित हो क्योंकि उसका लक्ष्य आत्मिक संतुष्टि पाना होता है।

बीमार किसान को देखकर चांग-हो को पछतावा हुआ

कन्फ्यूशियस के विद्वान शिष्य चांग-हो विश्व भ्रमण पर थे। जब वे ताईवान पहुंचे तो वहां गांव में उन्होंने एक विशाल हरे-भरे बगीचे में किसान को कुएं से पानी खींचकर पौधों को सींचते देखा। कड़ी मेहनत के कारण उसके माथे से पसीना टपक रहा था। लेकिन वह प्रसन्नतापूर्वक अपना काम कर रहा था। चांग-हो को उस पर दया आ गई।

उन्होंने लकड़ी की घिरी लगाकर कुएं से पानी निकालने का एक यंत्र बनाकर उसे दिया। पानी पेड़ों तक पहुंचाने के लिए मोटे बांसों को काटकर उनकी नालियां बना दीं और किसान को बेहतर जीवन जीने का संदेश देकर आगे निकल गए। कुछ सालों बाद जब वे दोबारा वहां पहुंचे तो उन्हें उस किसान से मिलने की इच्छा हुई। वे वहां पहुंचे तो देखा कि बगीचा सूखा था और किसान कमजोर हालत में एक खटिया पर पड़ा था।

चांग-हो ने अचरज से किसान से कहा - भाई मैंने तो तुम्हारे लिए समय और मेहनत की बचत करने वाला यंत्र बनाकर दिया था, पर तुम्हारी क्या हालत हो गई है? क्या तुम्हें बराबर आराम नहीं मिला? किसान की पत्नी बोली - महाशय, जबसे आपने यह यंत्र बनाकर दिया है, तभी से इनकी ऐसी हालत हुई है, क्योंकि यंत्र लग जाने से मेहनत करना इन्होंने बिल्कुल छोड़ दिया और आलस्य से घिर गए। बैठे-बैठे बेकार की बातों में डूबे रहते हैं और बीमार रहते हैं। यह सुनकर चांग-हो को अपनी गलती का अहसास हुआ।

सार यह है कि तंदुरुस्ती और प्रसन्नता के लिए शारीरिक श्रम आवश्यक है और श्रम से मिलने वाले आनंद का कोई विकल्प नहीं है।

अश्विनी कुमार ने अपना दंड स्वयं तय किया

अश्विनी कुमार दत्त जब हाईस्कूल में पढ़ते थे, उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय का नियम था कि सोलह वर्ष से कम उम्र के विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा में नहीं बैठ सकते। इस परीक्षा के समय अश्विनी कुमार की उम्र 14 वर्ष थी। किंतु जब उन्होंने देखा कि कई कम उम्र के विद्यार्थी सोलह वर्ष की उम्र लिखाकर परीक्षा में बैठ रहे हैं तो अश्विनी कुमार को भी यही करने की इच्छा हुई।

उन्होंने अपने आवेदन में सोलह वर्ष उम्र लिखी और परीक्षा दी। यही नहीं, इस प्रकार वे मैट्रिक पास हो गए। इसके ठीक एक वर्ष बाद जब अगली कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तब उन्हें अपने असत्य आचरण पर बहुत खेद हुआ।

उन्होंने अपने कॉलेज के प्राचार्य से बात की और इस असत्य को सुधारने की प्रार्थना की। प्राचार्य ने उनकी सत्यनिष्ठा की बड़ी प्रशंसा की, किंतु इसे सुधारने में असमर्थता जाहिर की। अश्विनी कुमार का मन न माना, तो वे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से मिले, किंतु वहां से भी उन्हें यही जवाब मिला। अब कुछ नहीं किया जा सकता था।

किंतु सत्यप्रेमी अश्विनी कुमार को तो प्रायश्चित करना था। इसलिए उन्होंने दो वर्ष झूठी उम्र बढ़ाकर जो लाभ उठाया था, उसके लिए दो वर्ष पढ़ाई बंद रखी और स्वयं द्वारा की गई उस गलती का उन्होंने इस प्रकार प्रायश्चित किया। सार यह है कि सत्य का आचरण कर व्यक्ति नैतिक रूप से मजबूत होता है और नैतिक दृढ़ता न केवल उसे जीवन में सफल बनाती है बल्कि समाज के मध्य वह आदरणीय भी होता है।