Wednesday, November 24, 2010

जब काशी नरेश ने अपनी महारानी को दंडित किया

काशी की महारानी अपनी दासियों के साथ माघ का स्नान करने नदी पर गईं। नदी के पास बनी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को राजसेवकों ने पहले ही हटा दिया था। माघ का महीना होने से स्नान के बाद रानी को ठंड लगने लगी। उन्होंने एक दासी से कहा- यहां सूखी लकड़ियां नहीं हैं।

इन झोपड़ियों में से एक में आग लगा दे। मुझे सर्दी लग रही है, हाथ-पैर सेंकने हैं। दासी बोली- महारानी, इन झोपड़ियों में या तो साधु रहते हैं या गरीब। इस शीतकाल में झोपड़ी जल जाने पर वे बेचारे कहां जाएंगे, किंतु महारानी को अपने सुख के आगे गरीबों के कष्ट की क्या परवाह।

उन्होंने दूसरी दासी को कहकर एक झोपड़ी में आग लगवा दी किंतु हवा के वेग से आग फैल गई और सभी झोपड़ियां जल गईं। महारानी ने उसकी कोई चिंता न करते हुए आराम से हाथ-पैर सेंके। अगले दिन वे गरीब लोग राजा के पास पहुंचे, जिनकी झोपड़ियां आग में स्वाहा हो गई थीं। राजा को जब पता चला तो उन्हें बड़ा दुख हुआ।

उन्होंने रानी से इस अन्याय का कारण पूछा तो वे घमंड से बोली- आप उन घास के गंदे झोपड़ों को घर बता रहे हैं। वे तो फूंक देने के ही योग्य थे। तब महाराज ने कहा- उन गरीबों के लिए वे झोपड़े कितने मूल्यवान हैं, यह तुम अब समझोगी। राजा ने कहा- आपको राजभवन से निष्कासित किया जा रहा है।

आप भिक्षा मांगकर जब जली हुईं झोपड़ियां पुन: बनवा देंगी, तब राजभवन में आ सकेंगी। वस्तुत: अत्याचारी को जब वही अत्याचार सहने का दंड दिया जाता है, तभी वह दर्द को जान पाता है और बुरा न करने हेतु कृतसंकल्पित होता है।

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